गोली कांड से खंडित हुई थी दशहरे की रथ यात्रा


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-1972-73 में नहीं निकली रथ यात्रा
-गोली कांड में हुई थी एक श्रद्धालु की मौत

नीना गौतम,कुल्लू 15अक्तूबर।

अतंरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जा रहे कुल्लू दशहरा उत्सव की रथ यात्रा की अखंड परंपरा 1661 में राजा जगत सिंह के समय में हुई थी। मगर 1661 से बेरोकटोक चल रही रघुनाथ की रथ यात्रा की यह अखंड परंपरा 1971 में गोली कांड से खंडित हुई थी। उसके बाद यह रथ यात्रा दो साल नहीं निकली। उल्लेखनीय है कि 1971 में उस समय के प्रशासक ने उस रास्ते को किन्हीं कारणों से बंद कर दिया था जहां से रघुनाथ की पालकी निकलती थी। मगर पाबंदी के बावजूद भी जब पालकी उसी रास्ते से निकली तो पुलिस ने श्रद्वालुओं पर गोली चलाई जिसमें एक श्रद्धालु की मौत हो गई। उसके बाद 1972 व 73 में रथायात्रा नहीं निकली मगर रघुनाथपुर सुलतानपुर में रघुनाथ मंदिर में सारी रस्में पूरी होती रही। 1920 तक दशहरे का आयोजन राजा करता रहा मगर 1920 से 1966 तक जिला बोर्ड कांगड़ा द्वारा दशहरे का आयोजन व प्रबंध किया जाता रहा उसके बाद स्थानीय नगरपालिका परिषद व जिला प्रशासन द्वारा सयुंक्त रूप से दशहरा मनाया जाता है। कुल्लू के राजा जगत सिंह के समय से ही कुल्लू का दशहरा विजय दशमी से मनाया जाता है। स्थानीय बोली में विजय दशमी को विदा दशमी कहा जाता है। जानकारों के अनुसार राजा के समय दशहरे में चार सौ के लगभग देवी-देवता आते थे। पहले कुल्लू में राजा शांगरी,आनी, व कुल्लू के राजा का दरबार लगता


था। राजा शांगरी का दरबार कलाकेंद्र के स्थान पर तथा राजा रूपी का दरबार वर्तमान जगह पर दशहरा मैदान में ही लगता था। उस समय राजा के दरबार को राजे री चानण कहा जाता था। दोनों राजाओं के दरबार में रात भर कुल्लवी नाटी तो चलती ही थी, साथ में राम लीला, देवी का तमाशा तथा धर्मिक प्रवचन आदि अनेक कार्यक्रम होते थे। एक तरह से उस समय कुल्लू दशहरा विशुद्ध पारंपरिक ढंग से मनाया जाता था, जिसमें लोग रातभर नाचते गाते थे। चांदनी रात में ढालपुर मैदान में जब गांव से आए लोग मस्त होकर नाचते थे तो ऐसा लगता था मानो उन्हें सारे जहां की खुशियां हासिल हो गई हो।

खासकर उस समय दशहरे में होरा बे जाचा बोला दिहाड़ी दोपहरे विदा दशमी राती’’ स्थानीय गीत पर लोग खूब झूमते थे। अब बदलते समय का आलम दशहरा मनाने का ढंग तो बदला मगर रघुनाथ व उनकी रथयात्रा से जुड़ी परंपराएं आज भी वैसी ही है। रघुनाथ की पूजा व श्रृंगार तथा रथयात्रा उसी ढंग से होती है जैसे पूर्व काल में होती थी। मगर अब देवी-देवताओं का आना कम हो गया है। हालांकि जब राजा शांगरी का दरबार लगता था तब तक बाहरी सिराज के देवता भी दशहरे में आते थे मगर उसके बाद उनका आना कम हो गया ।

इसके बावजूद भी दशहरे में हर वर्ष लगभग 150-250 देवी-देवता आते है। वहीं सांस्कृतिक गतिविधियां भी लालचंद प्रार्थी कलाकेंद्र में सिमट गई है। भले ही समय काल के चलते दशहरे के आयोजन में कुछ चीजें बदल गई मगर दशहरे का मुख्य आकर्षण रघुनाथ की रथयात्रा व अन्य धार्मिक परंपराओं का निर्वाहन आज भी पुराने तरीके से ही होता है।

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