इंदु गोस्वामी या विक्रम सिंह या फिर..
तूफान मेल न्यूज ,नाहन।
समय से पहले और शिमला नगर निगम के चुनाव के चलते सुरेश कश्यप का इस्तीफा कहीं ना कहीं भाजपा के लिए शुभ संकेत देता नजर नहीं आ रहा है।
हालांकि भाजपा में इस्तीफा दीया कम दिलवाया ज्यादा जाता है बावजूद इसके कश्यप का इस्तीफा कहीं ना कहीं बिरादरी फैक्टर को प्रभावित करता नजर आएगा।
बड़ी बात तो यह है कि प्रदेश में ना केवल जयराम बल्कि सुरेश कश्यप दोनों की छवि साफ-सुथरी और ईमानदार मानी जाती है। और यह पहला अवसर होगा की मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनों के बीच बेहतर सामंजस्य बना रहा था। दोनों बेहतर निर्णय लेने में सक्षम भी थे मगर संगठन मंत्री और ऊपरी रोक-टोक स्टीक निर्णयों पर भारी पड़ी।
सांसद के साथ-साथ प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेवारी को इकट्ठे निभा पाना बड़ा मुश्किल काम होता है बावजूद इसके सुरेश कश्यप दोनों भूमिकाओं में बेहतर भी रहे।
और यदि यह इस्तीफा दिलवाया गया है तो इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि अब एक बार फिर से बीजेपी का पुराना खेमा सक्रिय हो सकता है। यानी कहीं ना कहीं उन्हें जगह दी जा रही है। सवाल जेपी नड्डा के बेटे के भविष्य का भी है जिन का राजनीतिक कैरियर भाजपा ओल्ड गुट में ज्यादा मजबूत नजर आता है

जेपी नड्डा चुनाव के दौरान प्रदेश में आए थे और उन्हें यह भनक लग चुकी थी कि विधानसभा चुनावों में जनता नहीं बल्कि गुटबाजी यानी अपनों से ज्यादा नुकसान होने वाला है। इस चीज के संकेत भी मिले थे कि वह कार्यकर्ता और पुराने पदाधिकारी जो धूमल और शांता के समय में बड़े डेडीकेट कहलाते थे वह बीती जय राम सरकार के समय हाशिए पर रहे। राष्ट्रीय अध्यक्ष के द्वारा प्रदेश दौरे के दौरान उन पुराने कार्यकर्ताओं को मान सम्मान के साथ मंच भी साझा करने के लिए कहा गया था।
बावजूद इसके सुरेश कश्यप और जयराम ठाकुर जनता के बीच में बराबर लोकप्रिय रहे और है भी। सवाल सत्ता का है और सत्ता जनता के वोटों से आती है। जाहिर है इन दोनों यानी पुराने कार्यकर्ताओं और ने कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों को जोड़ पाना मुश्किल हुआ था। नतीजा खींचातानी में अपनों ने ही अपने जहाज के पेंदे में कील ठोक दी। अब यदि मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनों को केंद्र फ्री हैंड रखता तो निश्चित ही परिस्थितियां कुछ और होती।
बरहाल यह तो तय है कि अब भाजपा के संगठन के चुनाव होने हैं। प्रदेश अध्यक्ष भी चुना जाना है। ऐसे में यदि राजनीतिक नजरिए से देखा जाए और जो भाजपा की नीति रहती है उसके अनुसार इंदु गोस्वामी को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी जा सकती है। क्योंकि वह राज्यसभा सदस्य हैं चंडीगढ़ के नगर निगम चुनावों में उनकी परफॉर्मेंस भी अच्छी रही है । 1999 में धूमल सरकार के दौरान महिला आयोग की अध्यक्ष भी रह चुकी है। 2016 में प्रदेश महिला मोर्चा की अध्यक्ष रही हैं। यही नहीं प्रदेश में होने वाले चुनावों में महिलाओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी रहे इसको लेकर भी वह संघर्षरत रही है। 2020 में राज्यसभा सांसद बनी। जोड़-तोड़ के फलसफे में भी वह अच्छी पकड़ रखती हैं। प्रदेश में कांग्रेस की एक भी महिला सदन में नहीं है वहीं भाजपा की केवल एक विधायक महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही है। ऐसे में भाजपा महिला फैक्टर को जातीय समीकरणों की काट के तौर पर आजमा सकती है।
हालांकि पूर्व में उद्योग मंत्री रहे विक्रम ठाकुर के लिए भी गणित परफेक्ट बैठता है मगर उनका एग्रेसिव मोड कूटनीतिक दांव पेच में कामयाब नहीं होता है। अब यदि धूमल गुट को सक्रिय करने की बात आती है तो कहीं ना कहीं पूर्व में प्रदेश अध्यक्ष रहे सतपाल सत्ती और विपिन परमार के नाम पर भी चर्चा हो सकती है। बात यदि की जाए भाजपा में वेस्ट मैनेजमेंट और भाजपा के तीनों गुटों के बीच कैसे तारतम बिठाया जाए उसमें सबसे शीर्ष पर डॉ राजीव बिंदल का नाम आता है। बिंदल कि अपनों ने ही बढ़िया वाली घेराबंदी की थी। कथित तौर पर घोटालों के साथ जोड़कर उनका मानसिक संतुलन बिगाड़ने की कोशिश की गई। बावजूद इसके संगठन और पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा में कहीं भी कमी नहीं आई। अभी देखा जाए अगले विधानसभा चुनाव की तो डॉक्टर राजीव बिंदल के लिए एज फैक्टर टिकट में बाधा रहेगा। ऐसे में यदि प्रदेश में संसदीय चुनावों की बात की जाए और भाजपा में फिर से बेहतर अनुशासन कायम हो सके तो फिर बिंदल का चेहरा ही स्पष्ट नजर आता है।
सवाल यह उठ रहा है कि क्या सुरेश कश्यप का इस्तीफा स्वीकार हो चुका है या नहीं मगर यह तो तय है कि इस वक्त उनसे इस्तीफा लिया जाना या उनका इस्तीफा दिया जाना पार्टी हित में नहीं है।
अब यदि भाजपा संगठन के चुनाव की घोषणा कर दी पुरानी कार्यकारिणी को भंग कर दी और सुरेश कश्यप का इस्तीफा नियमानुसार दिया जाता तो संभवत संगठन में मैसेज अच्छा जाता।