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प्रभु चरणों में बिना कष्ट के चला जाता है:पंडित भास्करानंद शर्मा
तूफान मेल न्यूज ,बिलासपुर।
श्रीलक्ष्मी नारायण मंदिर परिसर में चल रही श्रीमद भागवत कथा के पांचवें में प्रवचनों की अमृत वर्षा करते हुए पंडित भास्करानंद शर्मा ने कहा कि श्रीमद भागवत कथा श्रवण से मृत्यु को सुधारा जा सकता है। क्योंकि जीवन की
महान सच्चाई मौत है कोई भी जीव इससे बच नहीं सका है। संसार में जो भी जीव आता है उसे संसार छोड़कर अवश्य जाना पड़ता है, आवागमन ही संसार की रीत है। उन्होंने कहा कि जिस काम के लिए जीव धरती पर आया है, वह उस काम को करना ही भूल गया है। भगवान का स्मरण ही एक ऐसा उपाय है जिससे जीव मनुष्य प्रभु चरणों में बिना कष्ट के चला जाता है। उन्होंने कहा कि मृत्यु सबके सिर पर सवार है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि यह मौत सभी को अपने साथ लेकर
जाएगी। उन्होंने कहा कि जीव जीव ही 84 के चक्कर में उलझा रहता है। जिस प्रकार जीवन जिया जाता है, उसी प्रकार मृत्यु को सुधारना आवश्यक है और इसे सत्संग से और भगवान की शरण में जाकर ही सुधारा जा सकता है ताकि
जीवात्मा मुक्त होकर परमात्मा के चरणों को प्राप्त कर सके। उन्होंने कहा कि सुधरी हुई मौत अमरता के शिखर पर चढ़ने की सीढ़ी है। इस दौरान उन्होंने राजा परीक्षित की कथा सुनाई। उन्होंने कहा कि जब भागवत कथा सुनाते हुए
शुकदेव को छह दिन बीत गए और उनकी मृत्यु में बस एक दिन शेष रह गया। लेकिन राजा का शोक और मृत्यु का भय कम नहीं हुआ तब शुकदेवजी ने राजा को एक कथा सुनाई कि एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया और रास्ता भटक गया। रात होने
पर वह आसरा ढूंढ़ने लगा। उसे एक झोपड़ी दिखी जिसमें एक बीमार बहेलिया रहता था। उसने झोपड़ी में ही एक ओर मल.मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था और अपने खाने का सामान झोपड़ी की छत पर टांग रखा था। उसे देखकर राजा पहले तो
ठिठका पर कोई और आश्रय न देख उसने बहेलिए से झोपड़ी में रातभर ठहरा लेने की प्रार्थना की। बहेलिया बोला कि मैं राहगीरों को अकसर ठहराता रहा हूं।
लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे झोपड़ी छोड़ना ही नहीं चाहते। इसलिए आपको नहीं ठहरा सकता। राजा ने उसे वचन दिया कि वह ऐसा नहीं करेगा। सुबह उठते.उठते उस झोपड़ी की गंध में राजा ऐसा रच.बस गया कि वहीं रहने की बात सोचने लगा।
इस पर उसकी बहेलिए से कलह भी हुई। वह झोपड़ी छोड़ने में भारी कष्ट और शोक का अनुभव करने लगा। कथा सुनाकर शुकदेव ने परीक्षित से पूछा क्या उस राजा के लिए यह झंझट उचित था, परीक्षित ने कहा वह तो बड़ा मूर्ख था, जो अपना
राज.काज भूलकर दिए हुए वचन को तोड़ना चाहता था। वह राजा कौन था, तब शुकदेव ने कहा कि परीक्षित वह तुम स्वयं हो। इस मल.मूत्र की कोठरी देह में
तुम्हारी आत्मा की अवधि पूरी हो गई। अब इसे दूसरे लोक जाना है, पर तुमझंझट फैला रहे हो। क्या यह उचित है। यह सुनकर परीक्षित ने मृत्यु के भयको भुलाते हुए मानसिक रूप से निर्वाण की तैयारी कर ली और अंतिम दिन का कथा.श्रवण पूरे मन से किया। परीक्षित का विवाह उत्तर के राजकुमार की बेटी इरावती से हुआ। इरावती और परीक्षित के चार बेटे हुए जिनमें एक जनमेजय था। परीक्षित ने गंगा नदी के किनारे चार अश्वमेध यज्ञ किया था। उन्होंने बताया कि शिक्षा ग्रहण करने के बाद परीक्षित ने शुकदेव से कहा कि अब उन्हें सांपों के काटने का कोई डर नहीं है। उन्होंने आत्मा और ब्रम्हा की
प्रकृति को जान लिया है। जब सुकदेव चले गए तो परीक्षित ने बैठकर ध्यान लगाना शुरू कर दिया। इसी दौरान उस काल के प्रचलित नाग वंश तक्षक का एक नाग ब्राह्मण की वेशभूषा में उनके नजदीक आया। उन्होंने परीक्षित को काट
खाया और इससे परीक्षित की मौत हो गई।