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तूफान मेल न्यूज, पांगी। हिमाचल प्रदेश को देवभूमि कहा जाता है क्योंकि यहां की कण-कण में देवताओं का वास है। हिमाचल एक पहाड़ी और प्राचीन सभ्यता से जुड़ा हुआ स्थल है। यहां पर त्योहार और मेलो को स्थानीय लोग बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं। जिला चंबा के जनजातीय क्षेत्र पांगी घाटी एक ऐसा ही इलाका है जो सर्दियों के मौसम में प्रदेश के अन्य हिस्सों से पूरा अलग-थलग हो जाता है। यहां खूब बर्फबारी होती है जिसके कारण यहां के रास्तों पर चारों तरफ बर्फ ही बर्फ 2 महीने तक रहती है। लोग अपने घरों में कैद हो जाते हैं। इस इलाके में स्थानीय लोग जुकारू उत्सव मनाते हैं जो पूरे 12 दिनों तक चलता है। इस उत्सव के दौरान राजा बलि की पूजा की जाती है। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस उत्सव के माध्यम से लोग आपस में गले मिलते हैं। “तगड़ा थीयां ना” कह कर मंगल कामना करते हैं। इस पूरे इलाके में सबसे ज्यादा पंगवाल समूदाय के लोग रहते है। और क्षेत्र में इस उत्सव को बड़े धुमधाम से मनाते है।
जुकारु उत्सव मनाने की पीछे की कहानी
जुकारु उत्सव मनाने के पीछे एक पौराणिक परंपरा प्रचलित है जिसके अनुसार राजा बलि ने वामन अवतार भगवान विष्णु को तीनों लोक दान में दे दिया। इसी की याद में चंबा की पांगी घाटी के लोग यह उत्सव मनाते हैं। 12 दिन तक यह उत्सव मनाया जाता है और इस दौरान घरों को खूब सजाया जाता है। और स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते हैं। इस उत्सव के दौरान सबसे पहले सिल्ह होता है. घरों को खास तरह की लिखावट की जाती है। बलिराज के चित्र बनाए जाते हैं और आटे की बकरे बनते हैं। रात को बलिराज की पूजा होती है। जुकारु का अर्थ होता है बड़ों का सम्मान करना। इस उत्सव में पड़ीद के दिन राजा बलि के लिए प्राकृतिक जल स्रोत से पानी पिलाया जाता है और पड़ीद की सुबह होते ही जुकारू आरंभ हो जाता है। खुशियों के साथ उत्सव आगे बढ़ता है लोग बड़ों से आशीर्वाद लेते हैं और एक दूसरे से गले मिलते हैं। इस उत्सव के दौरान स्वांग नृत्य भी होता है। इस दिन नाग देवता की कारदार को स्वांग बनाया जाता है। वह लंबी दाढ़ी और मूंछ वाले मुकुट पहन के स्वांग मेले में जाते हैं। पंगवाल लोगों की संस्कृति की झलक भी यहां पर नजर आती है। हिमाचल प्रदेश का यह मेला पंगवाल समूदायके बीच काफी महत्व रखता है। चंबा जिले के जनजातीय क्षेत्र पांगी में हर साल मनाये जाने वाले जुकारू उत्सव इस वर्ष भी 21 फरवरी से समूचे पांगी घाटी में मनाया जा रहा है। इस त्यौहार को घाटी की सांस्कृतिक पहचान और शान कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस त्यौहार पर घाटी की परंपरा कायम है जिसको तीन चरण में मनाया जाता है। सिलह, पड़ीद, मांगल यह त्यौहार फागुन मास की अमावस को मनाया जाता है। इस त्यौहार के कई दिनों पहले ही लोग इसकी तैयारियां करना शुरू कर देते हैं, घरों को सजाया जाता है। घर के अंदर लिखावट के माध्यम से लोक शैली को रेखांकित किया जाता है। विशेष पकवान मंण्डे के अतिरिक्त सामान्य पकवान के बनाए जाते हैं। सिलह त्योहार के दिन घरों में लिखावट की जाती है बलिराज के चित्र बनाए जाते हैं दिन में मंण्डे आदि बनाए जाते हैं। रात को बलिराजा के चित्र की पूजा की जाती है तथा दिन में पकाया सारा पकवान तथा एक दीपक राजा बलि के चित्र के सामने रखा जाता है। रात को चरखा कातना भी बंद कर दिया जाता है सब लोग जल्दी सो जाते हैं। एक दंतकथा कथा के अनुसार भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के पोते राजा बलि ने अपने पराक्रम से तीनों लोगों को जीत लिया तो भगवान विष्णु को वामन अवतार धारण करना पड़ा। राजा बलि ने वामन अवतार भगवान विष्णु को तीनो लोक दान में दे दिए। इससे प्रसन्न होकर विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया कि भूलोक में वर्ष में एक दिन उसकी पूजा होगी इसी परंपरा को घाटी के लोग राजा बलिदानों की पूजा करते आ रहे हैं। दूसरा दिन पडीद का होता है प्रात ब्रह्म मुहूर्त में उठकर लोग स्नानादि करके राजा बलि के समक्ष नतमस्तक होते हैं। इसके पश्चात घर के छोटे सदस्य बड़े सदस्यों के चरण वंदना करते हैं। बड़े उन्हें आशीर्वाद देते हैं राजा बलि के लिए पनघट से जल लाया जाता है लोग जल देवता की पूजा भी करते हैं।
इस दिन घर का मुखिया ‘चूर’ की पूजा भी करता है क्योंकि वह खेत में हल जोतने के काम आता है। सुबह होते ही ‘जुकारू’ आरंभ होता है जुकारू का अर्थ बड़ों के आदर से है। लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं इस त्यौहार का एक अन्य अर्थ यह है कि सर्दी तथा बर्फ के कारण लोग अपने घरों में बंद थे इसके बाद सर्दी काम होने लग ज…