राजतंत्र की धोंस भी दशहरा में नहीं ला पाई देवताओं के दादू को


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– दशहरा उत्सव में नहीं आते देवताओं के दादू कतरुसी नारायण
– राजा की सेना भी हार गई थी लग घाटी के देवताओं को दशहरा पर्व में लाने के लिए
– लगघाटी में अशुभ माना जाता है राजा के प्रवेश को
नीना गौतम तूफान मेल न्यूज ,कुल्लू

विश्व के सबसे बड़े देव महाकुंभ में जहां सैंकड़ोंं देवी-देवता शिरकत करते हैं, वहीं देवी-देवताओं के दादू कतरुसी नारायण दशहरा पर्व में नहीं आते है। लिहाजा दादू के आगे न तो राजतंत्र की धोंस चली और न ही भगवान रघुनाथ जी की परंपरा। लगघाटी के देवता दशहरा पर्व की परंपरा को नहीं मानते है । लग रियासत को जीतने के  बाद भी कुल्लू का राजा यहां की देव संस्कृति को प्रसन्न नहीं कर सका और यहां के देवताओं को कुल्लू दशहरे में सम्मलित करने में असफल रहा। आज भी लगघाटी के देवता कुल्लू दशहरा में शामिल नहीं होते हैं। इस घाटी के आदि देवता कतरुसी नारायण जिन्हें यहां के देवी-देवता दादू कह कर पुकारते हैं, को तत्कालीन राजा ने सेना के बल पर भी दशहरा परंपरा में शामिल करने के प्रयास किए थे, लेकिन लगघाटी के दडक़ा स्थान से आगे देवता के रथ को लाने में राजतंत्र हार गया था।

यही नहीं यहां की प्रसिद्ध शक्ति पीठ माता भेखली भी कुल्लू दशहरा में सम्मिलित नहीं होती। मान्यता है कि राजा जोग चंद्र के समय तक लग रियासत एक स्वंतत्र रियासत थी और इसकी अपनी संस्कृति थी। रियासत का क्षेत्र समूची लगघाटी के अतिरिक्त बजौरा बंदरोल तक था। यह क्षेत्र ब्यास नदी के दाएं तट पर स्थित है। ढालपुर मैदान भी इसी रियासत की मलकियत थी। यहां यह भी मानना है कि सुलतानपुर को राजा जोग चंद के छोटे भाई सुलतान ने बसाया था, जो रियासती परंपरा के अनुसार दिल्ली दरबार में बतौर अमानत रखे जाते थे, क्योंकि प्रत्येक रियासत को दिल्ली दरबार में कर जमा करना होता था और उस कर की नियमित उगाही के लिए राज परिवार के किसी सदस्य को वहां भेजना पड़ता था। यह भी मान्यता है कि जो राजा जब कर अदा नहीं करता था तो उसके दिल्ली दरबार में भेजे सदस्य को मौत के घाट उतार दिया जाता था।

सुलतान ने दिल्ली रियासत के अनुभव को पाकर अपने रियासती क्षेत्र को फैलाने के लिए ही सुलतानपुर को बसाया था, लेकिन उधर, कुल्लू रियासत के राजा को कुष्ठ प्रकोप से मुक्त होने के लिए अयोध्या से श्रीराम, लक्ष्मण, सीता  तथा हनुमान आदि की मूर्तियों लाकर दशहरा का आयोजन करना पड़ा । रघुनाथ परिवार को 1651 के लगभग पहली बार कुल्लू लाया गया था। 1651 तक ये मूर्तियां गोमती के नाम से जानी जानें वाली  गड़सा खड्ड तथा ब्यास के संगम तट मकराहड़ में राजा के महल में रखा गया था। यह मान्यता है कि ये जोगणीत्तर से मकराहड़ लाई गई थी, लेकिन मकराहड़ और लग रियासत का क्षेत्र साथ-साथ होने के कारण जिसे सिर्फ ब्यास दरिया ही विभक्त करता था, इसलिए रियासती भय के कारण 1653 के लगभग ये मूर्तियां, मणिकर्ण ले जाई गई और यहां दशहरा का आयोजन किया गया, लेकिन मणिकर्ण में भी जगह की कमी तथा रियासती भय के कारण यहां से ये मूर्तियां हरिपुर ले जाई गई और दशहरा का आयोजन हरिपुर में होने लगा।

दशहरा में देवी-देवताओं के अधिक संख्या में शामिल होने के कारण जगह के अभाव को देखते हुए तथा दशहरा में सभी देवी-देवताओं को एकत्रित करने की इच्छा से राजा ने ढालपुर के मैदान को हथियाने और लग रियासत पर अपनी विजय हासिल करने के उद्देश्य से डोभी चौकी में डेरा लगाकर ब्यास दरिया को पार कर सुलतानपुर पर 1656-58 के मध्य चढ़ाई कर दी और राजा जोग चंद्र के साथ युद्ध किया। राजा जोग चंद्र युद्ध में पराजित हुआ।

इस प्रकार कुल्लू  के राजा ने लग रियासत पर विजय हासिल करके जनता पर तो राज कर लिया, लेकिन यहां के देवी-देवताओं ने राजा को अपनी देव संस्कृति में कोई स्थान नहीं दिया, जिसका पुख्ता प्रमाण है नारायण अवतार श्रीराम के कुल्लू दशहरा उत्सव में लग रियासत के नारायण और यहां की आदि शक्तियों का सम्मिलित कोई भी देवता दशहरा पर्व मेें भाग नहीं लेते  हैं।

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