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तूफान मेल न्यूज ,डेस्क। कुल्लू जिला की सुरमयी वादियों में बसे नग्गर गांव में 3 अप्रैल 1916 में एक बालक ने जन्म लिया, जो आज भी हिमाचल के अविस्ममरणीय पटल पर एक शेरदिल योद्धा, क्रन्तिकारी स्वतन्त्रता सेनानी, कुशल राजनेता, समर्पित जनसेवक, हरफनमौला साहित्यकार और प्रतिभावान कलाकार के रूप में जन-जन में बसे हैं।
हिमाचल प्रदेश में भाषा विभाग और अकादमी की नींव उन्होंने ही रखी है। लाल चंद प्रार्थी का नाम आज भी हिमाचल की वादियों में पूरी शिद्दत के साथ लिया जाता है। यहां के लोगों के जहन में आज भी लाल चंद प्रार्थी द्वारा हर क्षेत्र में किए हुए काम याद है, और यही कारण है कि लाल चंद प्रार्थी का नाम आज भी कुल्लू जिला के सिर पर मुकुट की तरह चमक रहा है।
उच्च शिक्षा लाहौर में
लालचंद प्रार्थी की आरंभिक शिक्षा कुल्लू में प्राप्त कर उन्होंने जम्मू में अपने भाई राम चंद्र शास्त्री के पास जाकर संस्कृत भाषा का अध्ययन किया। वकील बनने की इच्छा ने उन्हें लाहौर की ओर आकर्षित किया। वहां पर वकील तो नहीं बन पाए, परंतु आयुर्वेदाचार्य की उपाधि 18 वर्ष की आयु में जरूर प्राप्त कर ली। लाहौर में आयुर्वेदाचार्य की पढाई के दौरान उन्होने अपने विद्यालय के छात्रों का नेतृत्व किया और स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गये।
लाहौर में ही कि पीपल्ज लीग’ की स्थापना
सन 1933 में लाहौर में ही कुल्लू के छात्रों ने मिलकर ‘पीपल्ज लीग’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य समाज सुधार के साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना था। इसी दौरान वह लाहौर में क्रांतिकारी दल के संपर्क में आए। कुल्लू आने पर नग्गर में एक ग्राम सुधार सभा का गठन किया, इसी के माध्यम से उन्होंने लोगों में राष्ट्रीय प्रेम और एकता की भावना का संचार किया। यहां तक कि सरकारी नौकरी छोड़कर कुल्लू के नौजवानों में देशप्रेम की लौ जगा दी। राष्ट्रीय चेतना के प्रसार में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। स्वतन्त्रता संग्राम की महान आहुति में पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम, प्रसिद्ध लेखक यशपाल, डा. यशवंत सिंह परमार के साथ प्रार्थी का नाम भी अग्रणी श्रेणी में आता है।
तीन बार विधायक और एक बार मंत्री रहे
हिमाचल के पुनर्गठन के बाद लाल चंद प्रार्थी तीन बार विधानसभा सदस्य रहे हैं। सबसे पहले 1952 में उन्हें विधानसभा सदस्य नियुक्त किया गया। इसके बाद 1962 और 1967 में भी उन्हें विधानसभा सदस्य चुना गया। 1967 में मंत्री बनने के बाद उन्होंने हिमाचल प्रदेश में भाषा-संस्कृति विभाग और अकादमी की स्थापना की थी। उसके बाद प्रदेश में भाषाओं के संरक्षण पर अभूतपूर्व कार्य हुआ। इतना ही नहीं उस दौरान उन्हें भाषा एवं संस्कृति मंत्रालय के साथ साथ आयुर्वेद मंत्री का कार्यभार भी सौंपा गया था। प्रार्थी को भारत सरकार की ओर से आयुर्वेदा का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।
साहित्यकार, कवि और गीत-संगीत का हुनर
राजनीति के आलावा उनके अंदर साहित्यकार, कवि और गीत-संगीत का हुनर भी भरा हुआ था। वे पांच भाषाओं के विद्वान थे। उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी और उर्दू का बारीकी से ज्ञान था। वे हिमाचल के आसमान-ए-सियासत और अदबी उफ़ुक़ के दरख़्शाँ चाँद थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था और अपने धाराप्रवाह भाषण से श्रोताओं को घंटों तक बाँधे रखते थे। उनका कलाम बीसवीं सदी की, ‘शम्मा और शायर’ जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था। ‘कुल-हिन्द’ तथा ‘हिन्द -पाक मुशायरों’ में भी उनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था। उन्होंने उर्दू भाषा में कई गजलें और कविताओं की भी रचनाएं की। जिसमें ‘बजूद-ओ-आदम’ रचना खास है।
एक कुशल पत्रकार और लेखक के रूप में प्रार्थी
लाहौर में आयुर्वेदाचार्य की पढाई के दौरान उन्होने ‘डोगरा सन्देश’ और ‘कांगड़ा समाचार’ के लिए नियमित रूप से लिखना शुरू किया। 1940 के दशक में उनका गीत ‘हे भगवान, दो वरदान, काम देश के आऊँ मैं’ बहुत लोकप्रिय था। इसे गाते हुए बच्चे और बड़े गली-कूचों में घूमते थे। उस समय उन्होंने ग्राम्य सुधार पर एक पुस्तक भी लिखी। यह गीत उस पुस्तक में ही छपा था। उन्होंने कुल्लू जिला के इतिहास को ‘कुल्लूत देश की कहानी’ नामक पुस्तक में लिखकर संजोए रखने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में कुल्लू की राजनीति, राजाओं के शासन, संस्कृति और वेषभूषा के साथ साथ भौगोलिक परिस्थितियों का भी उल्लेख किया गया है। इसके अलावा उन्होंने और भी कई पुस्तकों का लेखन किया है जो कुल्लू के इतिहास को लेकर काफी महत्व रखते हैं।
पृथ्वी राज कपूर भी प्रार्थी के अभिनय के कायल
लेखन के साथ ही उनकी प्रतिभा नृत्य और संगीत में भी थी। उन्हें शास्त्रीय गीत, संगीत और नृत्य की बारीकियों का अच्छा ज्ञान था। प्रार्थी के रोम-रोम में कलाकार छिपा रहता था। यही कलाकार उनको मुंबई की ओर भी ले गया था और ‘न्यू थियेटर्स कलकत्ता और न्यू इंडिया कंपनी लाहौर’ की दो फिल्मों में भूमिका निभाई थी, उनमें से एक ‘कारवाँ’ फिल्म भी थी जो उस दौर में जबरदस्त हिट रही। पृथ्वी राज कपूर के समक्ष उन्होंने जब कुल्लू लोकनृत्य को दर्शाया, तो पृथ्वी राज कपूर उनकी प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाए। अपने फिल्मी कलाकारों को पृथ्वी राज कपूर ने कहा था, ‘देखिए इस जवान में सृजन और दिल में चलन है। नाचते वक्त इसका अंग-अंग नाचता है, मस्ती से झूमता है। यह पैदायशी कलाकार है और आप सब नकली ….. ’। लाल चंद प्रार्थी के लिए एक बड़े कलाकार द्वारा कही यह बात मायने रखती है।
कुल्लुवी नाटी और कुल्लू दशहरा को दिलाई अंतर्राष्ट्रीय ख्याति
लालचन्द प्रार्थी ने हिमाचल प्रदेश की संस्कृति के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। एक समय ऐसा भी था, जब हिमाचल के लोगों में अपनी भाषा, बोली और संस्कृति के प्रति हीनता की भावना पैदा हो गयी थी। वे विदेशी और विधर्मी संस्कृति को श्रेष्ठ मानने लगे थे। ऐसे समय में प्रार्थी जी ने सांस्कृतिक रूप से प्रदेश का नेतृत्व किया। इससे युवाओं का पलायन रुका और लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व की भावना जागृत हुई
कुल्लू जब पंजाब का एक हिस्सा था और पंजाब में अपने लोकनृत्य भांगड़ा को ही महत्त्व मिलता था, उस समय प्रार्थी ने अपने लोकनृत्य के मोह में कुल्लवी नाटी को भांगड़े के समानांतर मंच दिया। उन्होंने लोकनृत्य दल गठित करके स्वयं कलाकारों को प्रशिक्षित करके 1952 के गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर प्रदर्शित किया और पुरस्कृत होने तथा पूर्ण राष्ट्र में इसे पहचान दिलाने का भागीरथी कार्य किया। कुल्लू दशहरे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाने का उनका प्रयास सफल हुआ। इसी दशहरे के मंच से कुल्वी नाटी में 12000 नर्तकों और नृत्यांगनाओं के एक साथ नृत्य को गिनीज बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड का रिकार्ड स्थापित करना उन्हीं की प्रेरणाओं का परिणाम रहा है। कुल्लू के प्रसिद्ध दशहरा मेले को अन्तरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित करना तथा कुल्लू में ओपन एअर थियेटर यानि कला केन्द्र की स्थापना उनके द्वारा ही हुई। कुल्लू-मनाली के पर्यटन को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर विकसित करने उनकी बड़ी भूमिका रही है. उनका यह योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
दूरदर्शी सोच के व्यक्ति थे लाल चंद प्रार्थी
वे दूरदर्शी सोच के व्यक्ति थे, आज केंद्र सरकार का जो नारा है ‘सबका साथ, सबका विकास’, यह पिछली शताब्दी के सातवें दशक में ही प्रार्थी ने स्वयं भी अपनाया और दूसरों को भी यही मंत्रणा दी –
‘अच्छा है साथ-साथ चले जिंदगी के तू,
ऐ खुदफरेब इससे कोई फासला न रख,
राह-ए-वफा में तेरी भी मजबूरियां सही,
इतना बहुत है दिल से मुझे तू जुदा न रख’।
‘चांद कुल्लवी’ और ‘शेर-ए-कुल्लू’ के रूप में याद किए जाते हैं प्रार्थी
काव्य रचनाओं और साहित्यिक रचनाओं के लिए लाल चंद्र प्रार्थी को चांद कुल्लवी की संज्ञा दी गई। कुल्लू घाटी के इस शेरदिल इंसान के हुनर और जज्बे को देखकर लोग इन्हें शेर-ए-कुल्लू कहते थ
‘चांद कुल्लवी’ या ‘शेर-ए-कुल्लू’ कहें या लाल चंद प्रार्थी कहे, वे हमेशा अपने नाम के साथ अपने जन्म स्थान कुल्लू के साथ ही जुड़े रहना चाहते थे। अपनी मातृ भाषा के साथ उनका अपार स्नेह था। वे स्वयं को राजनीतिज्ञ की अपेक्षा पहले साहित्यकार मानते थे। वह कहा करते थे कि मुझे लोग मंत्री के नाम से तो भूल जाएंगे, परंतु साहित्य के क्षेत्र में मुझे अवश्य याद किया जाएगा। 11 दिसंबर, 1982 को कुल्लू का यह चमकता सितारा सदा के लिए खो गया। लाल चंद प्रार्थी ने कुल्लू जिला के लिए ही नहीं बल्कि पूरे हिमाचल प्रदेश के लिए ऐसे कार्य किए हैं जिन्हें भूलना प्रदेश वासियों के लिए मुश्किल है। उनके बराबर कार्य आज तक कुल्लू जिला से सरकार में रहे कोई भी मंत्री और विधायक नहीं कर पाए ह