व्यापार, पर्यटन व मनोरंजन की दृष्टि से दशहरा उत्सव की अद्वितीय पहचान


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‘ठाकुर निकालना ‘मोहल्ला तथा ‘लंका दहन है दशहरा की मुख्य पहचान

तूफान मेल न्यूज,कुल्लू

कुल्लू का दशहरा हिमाचल प्रदेश के उत्सवों का सिरमौर बन गया है। यूं तो यहां मंडी की शिवरात्रि,चंबा में मिंजर मेला, सुजानपुर टिहरा में होली, शिमला में समर फेस्टिवल, रामपुर की लवी भी कम प्रसिद्ध नहीं है। लेकिन देवताओं की गोद में बसा कुल्लू अपनी अनूठी देव संस्कृति के लिहाज उत्सवों के फलक पर प्रसिद्ध है। ख्याति का लबादा दशहरा ने अपनी देव परंपरा से ही पहना है। फिर प्रगति के इस सफर में प्रदेश ने अपनी समृद्ध संस्कृति व सभ्यता की अनमोल थाती को बखूबी से संजोए रखा है, जिसका उदाहरण हमें प्रदेश में आयोजित होने वाले विभिन्न मेलों व उत्सवों में देखने को मिलता है। प्रदेश में ग्रामीण स्तर से राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले उत्सवों में कुल्लू दशहरा उत्सव ने जो ख्याति अर्जित की है वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है। ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में सात दिनों तक मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय लोकनृत्य उत्सव कुल्लू दशहरा की धार्मिक मान्यताओं, आरंभिक परंपराओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, पर्यटन, व्यापार व मनोरंजन की दृष्टि से अद्वितीय पहचान है। दशहरा उत्सव स्थानीय लोगों में विजय दशमी के नाम से प्रचलित है।

दशहरा उत्सव के मुख्यत: तीन भाग ‘ठाकुर निकालना ‘मोहल्ला तथा ‘लंका दहन है। दशहरे के आरंभ में सर्वप्रथम राजाओं के वंशजों द्वारा देवी हिडिंबा की पूजा-अर्चना की जाती है तथा राजमहल से रघुनाथ जी की सवारी रथ मैदान ढालपुर की ओर निकल पड़ती है। राजमहल से रथ मैदान तक की शोभा यात्रा का दृश्य अनुपम व मनमोहक होता है। ढालपुर रथ मैदान में रघुनाथ जी की प्रतिमा को सुसज्जित रथ में रखा जाता है। इस स्थान पर जिसमें देवी-देवता भी शामिल होते हैं, जिला के विभिन्न भागों से आए देवी-देवता एकत्रित होते हैं। प्रत्येक देवी-देवता की पालकी के साथ ग्रामवासी पारंपरिक वाद्य यंत्रों सहित उपस्थित होते हैं। इन वाद्य यंत्रों की लयबद्ध ध्वनि व जयघोष से वातावरण में रघुनाथ की प्रतिमा रखे रथ को विशाल जनसमूह द्वारा खींचकर ढालपुर मैदान के मध्य तक लाया जाता है, जहां पूर्व में स्थापित शिविर में रघुनाथ जी की प्रतिमा रखी जाती है। रघुनाथ जी की इस रथयात्रा को ठाकुर निकालना कहते हैं।

रथयात्रा के साथ कुल्लवी परंपराओं, मान्यताओं, देवसंस्कृति, पारंपरिक वेशभूषा, वाद्य यंत्रों की धुनों, देवी-देवताओं में आस्था, श्रद्धा व उल्लास का एक अनूठा संगम होता है। मोहल्ले के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ जी के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। इस दौरान देवी-देवता आपस में इस कद्र मिलते हैं कि मानों मानव को आपसी प्रेम का संदेश दे रहे हों। इस दृश्य को देखने के लिए हजारों की संख्या में एकत्रित हुए लोगों में देश-प्रदेश ही नहीं अपितु विदेशी पर्यटक भी शामिल होते हैं। मोहल्ले के दिन रात्रि में रघुनाथ शिविर के सामने शक्ति पूजन किया जाता है। दशहरा उत्सव के अंतिम दिन शिविर में से रघुनाथ जी की मूर्ति को निकालकर रथ में रखा जाता है तथा इस रथ को खींचकर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है।

दशहरे में उपस्थित देवी-देवता इस यात्रा में शरीक होते हैं। देवी-देवताओं की पालकियों के साथ ग्रामवासी वाद्य यंत्र बजाते हुए चलते हैं। लंका दहन की समाप्ति हो जाती है तथा रघुनाथ जी की पालकी को वापस मंदिर लाया जाएगा और देवी-देवता भी अपने-अपने गांव के लिए प्रस्थान करगें। ‘ठाकुरÓ निकलने से लंका दहन तक की अवधि में पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण रहता है। इस दौरान उन्हें यहां की भाषा, वेशभूषा, देव परंपराओं और सभ्यता से रूबरू होने का मौका मिलता है तथा स्थानीय उत्पाद विशेष रूप से कुल्लू की शॉल, टोपियां आदि खरीदने का अवसर भी प्राप्त होता है। इन दिनों का माहौल बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक स्थानीय लोगों से लेकर विदेशियों तक के लिए खुशगवार पसंदीदा होता है। छोटे बच्चों के मनोरंजन के लिए जहां ढेरों आकर्षण होते हैं, वहीं महिलाओं को खरीदारी करने हेतु एक विशेष अवसर प्राप्त होता है, जिसमें अहम बात यह रहती है कि कम से कम मूल्य से लेकर अधिक से अधिक कीमत तक की वस्तुओं उपलब्ध होती हैं। प्रत्येक वर्ग अपनी पहुंच और सुविधानुसार खरीददारी कर सकता है।

गर्मियों के मौसम में जहां सूर्य की किरणों के स्पर्श से कुल्लूू घाटी गर्माहट महसूस कर चुकी होती है, वहां अक्तूबर माह से सर्दियों की दस्तक पड़ते ही लोग बर्फानी मौसम में ठंड से बचने के लिए गर्म कपड़े कंबल आदि विशेष रूप से खरीदते हैं। ढालपुर के प्रदर्शनी मैदान में विभिन्न विभागों, गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा आयोजित प्रदर्शिनयां अपने आप में दशहरा उत्सव का एक विशेष आकर्षण है। यह प्रदर्शिनयां जहां बड़ों को संतुष्ट करती हैं, वहीं छोटे मासूम बच्चों के लिए आश्चर्य से भरे कई सवाल छोड़ जाती हैं। इसका मुख्य और सबसे आकर्षक गहना है, यहां आई असंख्य देवी-देवताओं की पालकियां जो मैदान में बने शिविरों में रखी जाती हैं।

प्रात: व संध्या के समय जब देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती है तो वातावरण भक्तिभाव से भर जाता है और लगता है कि जैसे अगर कहीं जन्नत है तो बस यहीं। इस समय कुल्लू घाटी में देव परंपराओं के जीवित होने का प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिलता है। लोगों में अपने अराध्य देव के प्रति विश्वास व श्रद्धा सागर में उठने वाली लहरों के मानिंद साफ दिखाई देता है। कहते हैं कि संगीत व मानव का अटूट व गहरा रिश्ता है। दशहरा उत्सव में गीत-संगीत यानि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का पक्ष इतना मजबूत और आकर्षक होता है कि लोग उत्सुकता, बेसब्री व तन्मयता से सांस्कृतिक कार्यक्रमों का इंतजार करते हैं।

गोली कांड से खंडित हुई थी दशहरे की रथ यात्रा
-1972-73 में नहीं निकली रथ यात्रा
-गोली कांड में हुई थी एक श्रद्धालु की मौत

तूफान मेल न्यूज, कुल्लू। देवमहाकुंभ अतंरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जा रहे कुल्लू दशहरा उत्सव की रथ यात्रा की अखंड परंपरा 1661 में राजा जगत सिंह के समय में हुई थी। मगर 1661 से बेरोकटोक चल रही रघुनाथ की रथ यात्रा की यह अखंड परंपरा 1971 में गोली कांड से खंडित हुई थी। उसके बाद यह रथ यात्रा दो साल नहीं निकली। उल्लेखनीय है कि 1971 में उस समय के प्रशासक ने उस रास्ते को किन्हीं कारणों से बंद कर दिया था जहां से रघुनाथ की पालकी निकलती थी। मगर पाबंदी के बावजूद भी जब पालकी उसी रास्ते से निकली तो पुलिस ने श्रद्वालुओं पर गोली चलाई जिसमें एक श्रद्धालु की मौत हो गई। उसके बाद 1972 व 73 में रथायात्रा नहीं निकली मगर रघुनाथपुर सुलतानपुर में रघुनाथ मंदिर में सारी रस्में पूरी होती रही। 1920 तक दशहरे का आयोजन राजा करता रहा मगर 1920 से 1966 तक जिला बोर्ड कांगड़ा द्वारा दशहरे का आयोजन व प्रबंध किया जाता रहा उसके बाद स्थानीय नगरपालिका परिषद व जिला प्रशासन द्वारा सयुंक्त रूप से दशहरा मनाया जाता है। कुल्लू के राजा जगत सिंह के समय से ही कुल्लू का दशहरा विजय दशमी से मनाया जाता है।

स्थानीय बोली में विजय दशमी को विदा दशमी कहा जाता है। जानकारों के अनुसार राजा के समय दशहरे में चार सौ के लगभग देवी-देवता आते थे। पहले कुल्लू में राजा शांगरी,आनी, व कुल्लू के राजा का दरबार लगता था। राजा शांगरी का दरबार कलाकेंद्र के स्थान पर तथा राजा रूपी का दरबार वर्तमान जगह पर दशहरा मैदान में ही लगता था। उस समय राजा के दरबार को राजे री चानण कहा जाता था। दोनों राजाओं के दरबार में रात भर कुल्लवी नाटी तो चलती ही थी, साथ में राम लीला, देवी का तमाशा तथा धर्मिक प्रवचन आदि अनेक कार्यक्रम होते थे। एक तरह से उस समय कुल्लू दशहरा विशुद्ध पारंपरिक ढंग से मनाया जाता था, जिसमें लोग रातभर नाचते गाते थे। चांदनी रात में ढालपुर मैदान में जब गांव से आए लोग मस्त होकर नाचते थे तो ऐसा लगता था मानो उन्हें सारे जहां की खुशियां हासिल हो गई हो।

खासकर उस समय दशहरे में होरा बे जाचा बोला दिहाड़ी दोपहरे विदा दशमी रातीÓÓ स्थानीय गीत पर लोग खूब झूमते थे। अब बदलते समय का आलम दशहरा मनाने का ढंग तो बदला मगर रघुनाथ व उनकी रथयात्रा से जुड़ी परंपराएं आज भी वैसी ही है। रघुनाथ की पूजा व श्रृंगार तथा रथयात्रा उसी ढंग से होती है जैसे पूर्व काल में होती थी। मगर अब देवी-देवताओं का आना कम हो गया है। हालांकि जब राजा शांगरी का दरबार लगता था तब तक बाहरी सिराज के देवता भी दशहरे में आते थे मगर उसके बाद उनका आना कम हो गया । इसके बावजूद भी दशहरे में हर वर्ष लगभग 150-250 देवी-देवता आते है। वहीं सांस्कृतिक गतिविधियां भी लालचंद प्रार्थी कलाकेंद्र में सिमट गई है। भले ही समय काल के चलते दशहरे के आयोजन में कुछ चीजें बदल गई मगर दशहरे का मुख्य आकर्षण रघुनाथ की रथयात्रा व अन्य धर्मिक परंपराओं का निर्वाहन आज भी पुराने तरीके से ही होता है।

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